
अज्ञान-तिमिरान्धस्य ज्ञानांजन-शलाकया ।
चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
भारतवर्ष में गुरु - शिष्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से रही है। जब शिष्य को सदगुरु प्राप्त हो जाते हैं तो उसकी दिशा एवं दशा दोनों बदल जाती है। गुरु की कृपा से शिष्य का दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाता है। धर्म शास्त्रों में गुरु की महत्ता बतलाते हुए कहा गया है कि गुरु से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कहा गया है कि भगवान के रुष्ट होने पर गुरु बचा लेते हैं परन्तु गुरु के रुष्ट होने पर कोई भी नहीं बचा सकता अतएव समस्त प्रयत्नों से श्री गुरु की शरण में जाना चाहिए।
हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।
भारतवर्ष में गुरु - शिष्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से रही है। जब शिष्य को सदगुरु प्राप्त हो जाते हैं तो उसकी दिशा एवं दशा दोनों बदल जाती है। गुरु की कृपा से शिष्य का दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाता है। धर्म शास्त्रों में गुरु की महत्ता बतलाते हुए कहा गया है कि गुरु से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कहा गया है कि भगवान के रुष्ट होने पर गुरु बचा लेते हैं परन्तु गुरु के रुष्ट होने पर कोई भी नहीं बचा सकता अतएव समस्त प्रयत्नों से श्री गुरु की शरण में जाना चाहिए।
हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन श्रीगुरु शरणं व्रजेत।।
कहते है कि श्री भगवान स्वयं वेदव्यास के रूप में जन-सामान्य को ज्ञान देने के लिये देह धारण किये थे अतः व्यास-जयन्ती पर गुरु-पूर्णिमा मनाया जाता है। लोग अपनी गुरु-परंपरा को स्मरण , पूजन आदि करते हैं। आज मैं भी अपने समस्त गुरु जनों को सादर नमन करते हुए एक पुरानी प्रार्थना दुहराती हूँ :-
बादल आवश्यकतानुसार जल बरसें जिससे यह पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो , मेरा देश सभी प्रकार के उद्वेग से रहित हो तथा साधक-समुदाय निडर हो कर अनुसन्धान करें ।
कहते है कि श्री भगवान स्वयं वेदव्यास के रूप में जन-सामान्य को ज्ञान देने के लिये देह धारण किये थे अतः व्यास-जयन्ती पर गुरु-पूर्णिमा मनाया जाता है। लोग अपनी गुरु-परंपरा को स्मरण , पूजन आदि करते हैं। आज मैं भी अपने समस्त गुरु जनों को सादर नमन करते हुए एक पुरानी प्रार्थना दुहराती हूँ :-
बादल आवश्यकतानुसार जल बरसें जिससे यह पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो , मेरा देश सभी प्रकार के उद्वेग से रहित हो तथा साधक-समुदाय निडर हो कर अनुसन्धान करें ।
काले वर्षतु पर्जन्यः पृथ्वी शस्यशालिनी ।
राष्ट्रोSयं क्षोभ रहितो निर्भयः सन्तु साधकः ।।
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