Saturday 29 November, 2008

जीत ली आतंक पर जंग.....

नरीमन हाउस को आतंकवादियों से खाली करवा लिया गया है॥यह घोषणा सुनते ही वहां मौजूद लोगों ने जय-जयकार शुरू कर दी। मुझे यकीन है टीवी के आगे बंधे बैठे पूरे मुल्क के बहुत सारे लोग उस जय-जयकार में शामिल थे। मैं नहीं था। चाहते हुए भी नहीं...बल्कि मुझे तो शर्म आ रही थी। मरीन हाउस के ' गौरवपूर्ण ' दृश्यों को दिखाते टीवी एंकर बोल रहे थे – यह गर्व की बात है , हमारे बहादुर जवानों ने आतंक पर एक जंग जीत ली है , नरीमन हाउस पर कब्जा हो गया है। नीचे न्यूज फ्लैश चल रहा था – नरीमन हाउस में आतंकियों का सफाया...दो आतंकी मारे गए...पांच बंधकों के भी शव मिले... एनएसजी कमांडो शहीद।
किस बात पर गर्व करें ? पांच मासूम जानें और बेशकीमती सैनिक खो देने के बाद दो आतंकवादियों के सफाए पर ? 10-20-50 लोग मनचाहे हथियार और गोलाबारूद लेकर आपके देश में घुसते हैं। जहां चाहे बम फोड़ देते हैं। खुलेआम सड़कों पर फायरिंग करते हैं। आपकी बेहद आलीशान और सुरक्षित इमारतों पर कब्जा कर लेते हैं। आपकी पुलिस के सबसे बड़े ओहदों पर बैठे अफसरों को मार गिराते हैं। सैकड़ों लोगों को कत्ल कर देते हैं। आपके मेहमानों को बंधक बना लेते हैं। आपकी खेल प्रतियोगिताओं को बंद करवा देते हैं। आपके प्रधानमंत्री और बड़े-बड़े नेताओं की घिग्घी बांध देते हैं। तीन दिन तक आपके सबसे कुशल सैकड़ों सैनिकों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलते हैं और इसलिए मारे जाते हैं क्योंकि वे सोचकर आए थे...इसे आप जीत कहेंगे ? क्या यह गर्व करने लायक बात है ?
आपको क्या लगता है , देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला करनेवाले आतंकवादियों को मारकर आतंक के खिलाफ यह जंग हमने जीत ली है ? हम इस जंग में बुरी तरह हार गए हैं। उन लोगों ने जो चाहा किया , जिसे चाहा मारा , जिस हद तक खींच सके खींचा। आपको क्या लगता है , बंधकों को सेना ने बचाया है ? जब वे होटलों में घुसे तो हजारों लोग उनके निशाने पर थे। वे चाहते तो सबको मार सकते थे। उनके पास इतना गोला-बारूद था कि ताज और ओबरॉय होटेलों का नाम-ओ-निशान तक नहीं बचता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इंतजार किया कि पूरी दुनिया का मीडिया उनके आगे घुटने टेक कर और जमीन पर लेटकर यह दिखाने को मजबूर हो जाए कि वे क्या कर सकते हैं। उनकी चलाई एक-एक गोली पर रिपोर्टर्स चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे – देखिए एक गोली और चली। इसे आप जीत कहेंगे ?
यह देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला था...1993 के बम ब्लास्ट के बाद भी यही कहा गया था। जब वे हमारा जहाज कंधार उड़ा ले गए थे , तब भी यही कहा था। संसद पर हमला हुआ तब भी यह शब्द थे। अहमदाबाद को उड़ाया था , तब भी सब यही सोच रहे थे। दिल्ली , जयपुर , मुंबई लोकल...हर बार उनका हमला बड़ा होता गया...क्या लगता है अब इससे बड़ा हमला नहीं हो सकता ? बड़े आराम से होगा और हम तब भी यही कह रहे होंगे। क्या इसका इलाज अफजल की फांसी में है ? क्या इसका इलाज पाकिस्तान पर हमले में है ? क्या इसका इलाज पोटा में है ? आतंकियों ने अपने ई-मेल में लिखा था कि वे महाराष्ट्र एटीएस के मुसलमानों पर जुल्म का बदला ले रहे हैं। वे गुजरात का बदला ले रहे हैं। वे आजमगढ़ का बदला ले रहे हैं।
वे धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं। भले ही उनकी गोलियों से मुसलमान भी मरे , लेकिन वे मुसलमानों के नाम पर लड़ रहे हैं। शर्म आनी चाहिए उन मुसलमानों को जो इस लड़ाई को अपनी मानते हैं। लेकिन यूपी के किसी छोटे से शहर के कॉलेज में पढ़ने वाला 20-25 साल का मुस्लिम लड़का जब देखेगा कि आजमगढ़ से हुई किसी भी गिरफ्तारी को सही ठहरा देने वाले लोग कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे से चल रही पूछताछ पर ही सवाल उठा देते हैं , तो क्या वह धर्म के नाम पर हो रही इस लड़ाई से प्रभावित नहीं होगा ? क्या गुजरात को गोधरा की ' प्रतिक्रिया ' बताने वाले लोग मुंबई को गुजरात की प्रतिक्रिया मानने से इनकार कर पाएंगे ? और अब क्या इस प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया यह हो कि कुछ और मालेगांव किए जाएं ? और फिर जवाबी प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया जाए ? फिर हिंदू प्रतिक्रिया हो... फिर...लेकिन क्या इससे आतंकवादी हमले बंद हो जाएंगे ? क्या इससे जंग जीती जा सकेगी { विवेक आसरी }
नवभारत टाईम्स से साभार

1 comment:

Sumit said...

सटीक एवं यथार्थ लेखन । जब अपना ही सिक्का खोटा है तो कहें क्या ?